भारत में कई प्राचीन और पवित्र मंदिर हैं, जहां लोग ईश्वर की आराधना करते हैं| इसीलिए भारत देश को धार्मिक मान्यताओं और पवित्र मंदिरों से बसा देश कहा जाता है| इनमें भगवान भोलेनाथ के मंदिरों की महिमा अपार है। कई भक्त हर साल भगवान शिव के इन मंदिरों, शिवालयों में लाखों की संख्या में जाते हैं|
इन्हीं पवित्र शिवालयों में भोलेनाथ के 12 प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग भी हैं| जिनका महत्व सबसे अधिक है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भोलेनाथ के 12 Jyotirlinga में भगवान शिव, ज्योति के रूप में स्वयं विराजमान हैं| ये सभी ज्योतिर्लिंग भारत के अलग अलग राज्यों में स्थित हैं| तो चलिए जानते है इनके बारे में|
12 Jyotirlinga – भगवान शिव के 12 पवित्र स्थान
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
महाकालेश्वर मंदिर भारत के मध्यप्रदेश राज्य के उज्जैन नगर में स्थित, भगवान शिव का प्रमुख मंदिर है। इसके दर्शन मात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, ऐसी मान्यता है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग का इतिहास
इतिहास से पता चलता है कि उज्जैन में सन् 1107 से 1728 ईसवी तक यवनों का शासन था| इनके शासनकाल में अवंति की लगभग 4500 वर्षों में स्थापित हिन्दुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराएं प्राय: नष्ट हो चुकी थी| लेकिन 1690 ईसवी में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया और 29 नवंबर 1728 को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया|
इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा और सन 1731 से 1809 तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही| मराठों के शासनकाल में यहाँ दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं – पहला, महाकालेश्वर मंदिर का पुनिर्नर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुनर्प्रतिष्ठा तथा सिंहस्थ पर्व स्नान की स्थापना, जो एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी| आगे चलकर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया|
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग
सोमनाथ मन्दिर भारतवर्ष के पश्चिमी छोर पर गुजरात प्रदेश के काठियावाड़ क्षेत्र में स्थित शिव मन्दिर है| यह भारतीय इतिहास तथा हिन्दुओं के चुनिन्दा और महत्वपूर्ण 12 Jyotirlinga में से एक है|
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग का इतिहास
सर्वप्रथम एक मन्दिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मन्दिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया| आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी| गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईसवी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया|
इस मन्दिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी| अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में कुछ 5,000 साथियों के साथ सोमनाथ मन्दिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया| 50,000 लोग मन्दिर के अन्दर हाथ जोड़कर पूजा अर्चना कर रहे थे, प्रायः सभी कत्ल कर दिये गये|
इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया| सन 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर क़ब्ज़ा किया तो इसे पाँचवीं बार गिराया गया| मुगल बादशाह औरंगजेब ने इसे फिर एक बार 1706 में गिरा दिया| इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और 1 दिसम्बर 1955 को भारत के राष्ट्रपति डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया|
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग
आन्ध्र प्रदेश के कृष्णा ज़िले में कृष्णा नदी के तट पर श्रीशैल पर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन विराजमान हैं| इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं| अनेक धर्मग्रन्थों में इस स्थान की महिमा बतायी गई है|
मल्लिका यानी की पार्वती और अर्जुन का अर्थ भगवान शंकर है| पुराणों के अनुसार मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में महादेव और मां पार्वती की संयुक्त रूप से दिव्य ज्योतियां विद्यमान हैं| मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग का मंदिर तक पहुंचने के लिए घने जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है|
मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग कथा
शिव पुराण की कथा के अनुसार एक बार पहले विवाह करने को लेकर शिव जी-माता पार्वती के पुत्र गणेश जी और कार्तिकेय में झगड़ा हो गया| विवाद सुलझाने के लिए शंकर जी बोले जो पहले पृथ्वी का चक्कर लगाएगा उसका विवाह पहले होगा|
कार्तिकेय पृथ्वी की परिक्रमा के लिए निकल गए, लेकिन गणेश ने अपनी चतुर बुद्धि का उपयोग किया और मां पार्वती -भोलेनाथ को सारा संसार मानकर उनके चारों ओर चक्कर लगाने लगे| परिणाम स्वरूप गणेश जी का विवाह पहले हो गया| कार्तिकेय जब वापस लौटे तो गणेश को पहले विवाह करते देख वो माता-पिता से नाराज हो गये|
कार्तिकेय नाराज होकर क्रोंच पर्वत पर चले गये| सभी देवी-देवताओं ने उन्हें वापस आने का आग्रह किया लेकिन वो नहीं माने| यहाँ पुत्र वियोग में शंकर-पार्वती दुखी थे| दोनों पुत्र से मिलने क्रोंच पर्वत पर पहुंचे तो कार्तिकेय उन्हें देखकर और दूर चले गए| अंत में पुत्र के दर्शन की लालसा में भगवान शंकर ने ज्योति रूप धारण कर लिया और यहीं विराजमान हो गए|
तब से ये शिव धाम मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रसिद्ध हो गया| माना जाता हर अमावस्या पर शिव जी और पूर्णिमा पर मां पार्वती यहां आते हैं|
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग
ओंकारेश्वर मंदिर मध्य प्रदेश के खंडवा जिले में स्थित है| यह नर्मदा नदी के बीच मन्धाता या शिवपुरी नामक द्वीप पर स्थित है| यह द्वीप हिन्दू पवित्र चिन्ह ॐ के आकार में बना है|
ऐसा कहा जाता है कि ये तट ॐ के आकार का है| यहाँ प्रतिदिन अहिल्याबाई होल्कर की तरफ से मिट्टी से निर्मित 18 शिवलिंग तैयार करके नर्मदा नदी में विसर्जित किये गए हैं| मंदिर की इमारत पांच मंजिला है| यह ज्योतिर्लिंग पंचमुखी है| लोगों का यह मानना है कि भगवान शिव तीनों लोको का भ्रमण करके यहाँ विश्राम करते हैं|
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा
राजा मान्धाता ने यहाँ नर्मदा किनारे इस पर्वत पर घोर तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और शिवजी के प्रकट होने पर उनसे यहीं निवास करने का वरदान माँग लिया| तभी से उक्त प्रसिद्ध तीर्थ नगरी ओंकार-मान्धाता के रूप में पुकारी जाने लगी| ओंकार शब्द का उच्चारण सर्वप्रथम सृष्टिकर्ता विधाता के मुख से हुआ, वेद का पाठ इसके उच्चारण किए बिना नहीं होता है| इसमें 68 तीर्थ हैं और यहाँ 33 कोटि के देवता परिवार सहित निवास करते हैं|
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग
केदारनाथ मंदिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित हिन्दुओं का प्रसिद्ध मंदिर है| हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मंदिर 12 Jyotirlinga में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है|
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग का इतिहास
इस मंदिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थ रहा है| राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है| ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाया हुआ है जो 1076-1099 काल के थे|
एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है| मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है|
केदारनाथ जी के तीर्थ पुरोहित इस क्षेत्र के प्राचीन ब्राह्मण हैं, उनके पूर्वज ऋषि-मुनि भगवान नर-नारायण के समय से इस स्वयंभू ज्योतिर्लिंग की पूजा करते आ रहे हैं, जिनकी संख्या उस समय 360 थी| पांडवों के पोते राजा जनमेजय ने उन्हें इस मंदिर में पूजा करने का अधिकार दिया था, और वे तब से तीर्थयात्रियों की पूजा कराते आ रहे हैं|
आदि गुरु शंकराचार्य जी के समय से यहां पर दक्षिण भारत से जंगम समुदाय के रावल व पुजारी मंदिर में शिव लिंग की पूजा करते हैं, जबकि यात्रियों की ओर से पूजा इन तीर्थ पुरोहित ब्राह्मणों द्वारा की जाती है| मंदिर के सामने पुरोहितों की अपने यजमानों एवं अन्य यात्रियों के लिये पक्की धर्मशालाएं हैं, जबकि मंदिर के पुजारी एवं अन्य कर्मचारियों के भवन मंदिर के दक्षिण की ओर हैं|
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग
भीमाशंकर मंदिर भोरगिरि गांव खेड़ से 50 किमी. उत्तर-पश्चिम पुणे से 110 किमी. में स्थित है| यह पश्चिमी घाट के सह्याद्रि पर्वत पर स्थित है| यहीं से भीमा नदी भी निकलती है|
भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग का इतिहास
भीमशंकर ज्योतिर्लिंग का वर्णन शिवपुराण में मिलता है| शिवपुराण में कहा गया है कि पुराने समय में कुंभकर्ण का पुत्र भीम नाम का एक राक्षस था| उसका जन्म ठीक उसके पिता की मृत्यु के बाद हुआ था| अपनी पिता की मृत्यु भगवान राम के हाथों होने की घटना की उसे जानकारी नहीं थी|
बाद में जब अपनी माता से इस घटना की जानकारी हुई तो वह श्री भगवान राम का वध करने के लिए आतुर हो गया| अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने अनेक वर्षो तक कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर उसे ब्रह्मा जी ने विजयी होने का वरदान दिया| वरदान पाने के बाद राक्षस निरंकुश हो गया| उससे मनुष्यों के साथ साथ देवी-देवता भी भयभीत रहने लगे|
धीरे-धीरे सभी जगह उसके आंतक की चर्चा होने लगी| युद्ध में उसने देवताओं को भी परास्त करना प्रारंभ कर दिया और सभी तरह के पूजा पाठ बंद करवा दिए| सारे देवी देवता परेशान होने के बाद शिव की शरण में गए| भगवान शिव ने सभी को आश्वासन दिलाया कि वे इस का उपाय निकालेंगे| भगवान शिव ने राक्षस तानाशाह भीम से युद्ध करने की ठानी|
लड़ाई में भगवान शिव ने दुष्ट राक्षस को राख कर दिया और इस तरह अत्याचार की कहानी का अंत हुआ| भगवान शिव से सभी देवों ने आग्रह किया कि वे इसी स्थान पर शिवलिंग रूप में विराजित हो| भगवान शिव ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार किया और वे भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में आज भी यहां विराजित हैं|
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग
काशी विश्वनाथ मंदिर कई हजार वर्षों से उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में गंगा नदी के किनारे स्थित है| ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है|
काशी विश्वनाथ मंदिर भगवान शिव के 12 Jyotirlinga में से एक है| इस मंदिर को विश्वेश्वर नाम से भी जाना है| इस शब्द का अर्थ होता है ‘ब्रह्माड का शासक’|
काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग कथा
पौराणिक कथाओं के मुताबिक, भगवान शिव देवी पार्वती से विवाह करने के बाद कैलाश पर्वत आकर रहने लगे| वहीं देवी पार्वती अपने पिता के घर रह रही थीं जहां उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था| देवी पार्वती ने एक दिन भगवान शिव से उन्हें अपने घर ले जाने के लिए कहा| भगवान शिव ने देवी पार्वती की बात मानकर उन्हें काशी लेकर आए और यहां विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में खुद को स्थापित कर लिया|
त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग
त्र्यम्बकेश्वर ज्योर्तिलिंग मन्दिर महाराष्ट्र-प्रांत के नाशिक जिले में त्रयंबक गांव में हैं| मंदिर के अंदर एक छोटे से गढ्ढे में तीन छोटे-छोटे लिंग है, ब्रह्मा, विष्णु और शिव इन तीनों देवों के प्रतीक माने जाते हैं|
गोदावरी नदी के किनारे स्थित त्र्यंबकेश्वर मंदिर काले पत्थरों से बना है| इस मंदिर के पंचक्रोशी में कालसर्प शांति, त्रिपिंडी विधि और नारायण नागबलि की पूजा संपन्न होती है| जिन्हें भक्तजन अलग-अलग मुराद पूरी होने के लिए करवाते हैं|
त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग का इतिहास
इस प्राचीन मंदिर का पुनर्निर्माण तीसरे पेशवा बालाजी अर्थात नाना साहब पेशवा ने करवाया था| इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1755 में शुरू हुआ था और 31 साल के लंबे समय के बाद 1786 में जाकर पूरा हुआ|
प्राचीनकाल में त्र्यंबक गौतम ऋषि की तपोभूमि थी| अपने ऊपर लगे गोहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए गौतम ऋषि ने कठोर तप कर शिव से गंगा को यहाँ अवतरित करने का वरदान मांगा| फलस्वरूप दक्षिण की गंगा अर्थात गोदावरी नदी का उद्गम हुआ|
गोदावरी के उद्गम के साथ ही गौतम ऋषि के अनुनय-विनय के उपरांत शिवजी ने इस मंदिर में विराजमान होना स्वीकार कर लिया| तीन नेत्रों वाले शिवशंभु के यहाँ विराजमान होने के कारण इस जगह को त्र्यंबक (तीन नेत्रों वाले) कहा जाने लगा| उज्जैन और ओंकारेश्वर की ही तरह त्र्यंबकेश्वर महाराज को इस गाँव का राजा माना जाता है, इसलिए हर सोमवार को त्र्यंबकेश्वर के राजा अपनी प्रजा का हाल जानने के लिए नगर भ्रमण के लिए निकलते हैं|
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग
वैद्यनाथ मन्दिर भारत के झारखण्ड राज्य के देवघर नामक स्थान में स्थित है| शिव का एक नाम ‘वैद्यनाथ भी है, इस कारण लोग इसे ‘वैद्यनाथ धाम’ भी कहते हैं| एक सिद्धपीठ होने के कारण इस लिंग को “कामना लिंग” भी कहा जाता हैं|
वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का इतिहास
इस लिंग की स्थापना का इतिहास यह है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर जाकर शिवजी की प्रसन्नता के लिये घोर तपस्या की और अपने सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ाने शुरू कर दिये| एक-एक करके नौ सिर चढ़ाने के बाद दसवां सिर भी काटने को ही था कि शिवजी प्रसन्न होकर प्रकट हो गये| उन्होंने उसके दसों सिर ज्यों-के-त्यों कर दिये और उससे वरदान मांगने को कहा|
रावण ने लंका में जाकर उस लिंग को स्थापित करने के लिये उसे ले जाने की आज्ञा मांगी| शिवजी ने इस चेतावनी के साथ अनुमति दी कि यदि मार्ग में इसे पृथ्वी पर रख देगा तो वह वहीं अचल हो जाएगा| अंततः वही हुआ, रावण शिवलिंग लेकर चला पर मार्ग में एक चिताभूमि आने पर उसे लघुशंका निवृत्ति की आवश्यकता हुई| रावण उस लिंग को एक व्यक्ति को थमा लघुशंका-निवृत्ति करने चला गया|
इधर उस व्यक्ति ने ज्योतिर्लिंग को बहुत अधिक भारी अनुभव कर भूमि पर रख दिया| फिर क्या था, लौटने पर रावण पूरी शक्ति लगाकर भी उसे न उखाड़ सका और निराश होकर मूर्ति पर अपना अंगूठा गड़ाकर लंका को चला गया| इधर ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने आकर उस शिवलिंग की पूजा की|
शिवजी का दर्शन होते ही सभी देवी देवताओं ने शिवलिंग की वहीं उसी स्थान पर प्रतिस्थापना कर दी और शिव-स्तुति करते हुए वापस स्वर्ग को चले गये| जनश्रुति व लोक-मान्यता के अनुसार यह वैद्यनाथ-ज्योतिर्लिग मनोवांछित फल देने वाला है|
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग
नागेश्वर मन्दिर एक प्रसिद्द मन्दिर है जो भगवान शिव को समर्पित है| यह द्वारका, गुजरात के बाहरी क्षेत्र में स्थित है| भगवान शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारका पुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है|
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा
अन्य ज्योतिर्लिंगो की तरह नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के संम्बन्ध में एक कथा प्रसिद्ध है| कथा के अनुसार ‘सुप्रिय’ नाम का एक व्यापारी भगवान शिव का अनन्य भक्त था| वह बहुत ही ज्यादा धर्मात्मा, सदाचारी था| उसकी इस भक्ति और सदाचारिता से एक बार दारुक नाम का राक्षस नाराज हो गया| राक्षस प्रवृ्ति का होने के कारण उसे भगवान शिव जरा भी अच्छे नहीं लगते थे, इसलिए वह ऐसे अवसरों की तलाश करता था जिससे वह सुप्रिय को नुकसान पहुंचा सके|
एक दिन जब वह नाव पर सवार होकर समुद्र के जलमार्ग से कहीं जा रहा था, उस समय दारुक ने उस पर आक्रमण कर दिया| राक्षस दारुक ने नाव पर सवार सभी लोगों सहित सुप्रिय का अपहरण कर लिया और अपनी पुरी में ले जाकर उसे बंदी बना लिया|
सुप्रिय शिव जी का अनन्य भक्त था, इसलिए वह हमेशा शिव जी की आराधना में तन्मय रहता था ऐसे में कारागार में भी उसकी आराधना बंद नहीं हुई और उसने अपने अन्य साथियों को भी शंकर जी की आराधना के प्रति जागरुक कर दिया| वे सभी शिवभक्त बन गये और कारागार में शिवभक्ति का ही बोलबाला हो गया|
जब इसकी सूचना राक्षस दारुक को मिली तो वह क्रोध में उबल उठा| वह व्यापारी के पास कारागार में पहुंचा| व्यापारी उस समय पूजा और ध्यान में मग्न था| राक्षस ने उसी ध्यानमुद्रा में उस पर क्रोध करना प्रारम्भ कर दिया लेकिन इसका असर सुप्रिय पर नहीं पड़ा| तंग आकर राक्षस ने अपने अनुचरों से कहा कि वे व्यापारी को मार डालें|
यह आदेश भी व्यापारी को विचलित न कर सका| इस पर भी व्यापारी अपनी और अपने साथियों की मुक्ति के लिए भगवान शिव से प्रार्थना करने लगा| उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव उसी कारागार में एक ज्योतिर्लिंग रूप में प्रकट हुए| भगवान शिव ने व्यापारी को पाशुपत-अस्त्र दिया ताकि वह अपनी रक्षा कर सके|
इस अस्त्र से सुप्रिय ने राक्षस दारुक तथा उसके अनुचरों का वध कर दिया| उसी समय से भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुआ| नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के अतिरिक्त नागेश्वर नाम से दो अन्य शिवलिंगों की भी चर्चा ग्रन्थों में प्राप्त होती है| ज्योतिर्लिंग के रूप में द्वारिकापुरी का नागेश्वर ज्योतिर्लिंग विश्वभर में प्रसिद्ध है|
द्वारिकापुरी के नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के परिसर में भगवान शिव की ध्यान मुद्रा में बड़ी ही मनमोहक और अति विशाल प्रतिमा है जिसकी वजह से यह प्रतिमा मंदिर से तीन किलोमीटर की दूरी से ही दिखाई देने लगती है| यह मूर्ति 125 फीट ऊंची तथा 25 फीट चौड़ी है|
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है| यह तीर्थ हिन्दुओं के चार धामों में से एक है| इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग 12 Jyotirlinga में से एक माना जाता है|
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग कथा
रामेश्वरम के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारें में यह रोचक कथाऐ कही जाती है| सीताजी को छुड़ाने के लिए राम ने लंका पर चढ़ाई की थी| उन्होने युद्ध के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर जब रावण के ना मानने पर विवश होकर उन्होने युद्ध किया| इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था|
तब श्री राम ने, युद्ध कार्य में सफलता और विजय प्राप्ति के लिए उनके आराध्य भगवान शिव की आराधना के लिए समुद्र किनारे की रेत से शिवलिंग का अपने हाथों से निर्माण किया, तभी भगवान शिव स्वयं ज्योति स्वरुप प्रकट हुए और उन्होंने इस लिंग को श्री रामेश्वरम की उपमा दी| इस युद्ध में रावण के साथ, उसका पुरा राक्षस वंश समाप्त हो गया और अन्ततः सीताजी को मुक्त कराकर श्रीराम वापस लौटे|
रावण भी साधारण राक्षस नहीं था| वह महर्षि पुलस्त्य का वंशज और वेदों का महाज्ञानी और शिवजी का बड़ा भक्त भी था| श्रीराम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ| ब्रह्मा-हत्या के पाप प्रायस्चित के लिए श्री राम ने युुद्ध विजय बाद भी यहां रामेश्वरम् जाकर पूजन किया|
शिवलिंग की स्थापना करने के बाद, इस लिंंग को काशी विश्वनाथ के समान मान्यता देनेे के लिए, उन्होंनेे हनुमानजी को काशी से एक शिवलिंग लाने कहा| पवन पुत्र हनुमान बड़े वेग से आकाश मार्ग से चल पड़े और शिवलिंग लेे आए| यह देखकर राम बहुत प्रसन्न हुए और रामेश्वर ज्योतिलििंंग के साथ काशी के लिंंग की भी स्थापना कर दी|
छोटे आकार का यही शिवलिंग रामनाथ स्वामी भी कहलाता है| ये दोनों शिवलिंग इस तीर्थ के मुख्य मंदिर में आज भी पूजित हैं| यही मुख्य शिवलिंग ज्योतिर्लिंग है|
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग
महाराष्ट्र में औरंगाबाद के नजदीक दौलताबाद से 11 किलोमीटर दूर घृष्णेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है। यह 12 Jyotirlinga में से एक है। कुछ लोग इसे घुश्मेश्वर के नाम से भी पुकारते हैं।
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का इतिहास
एक तथ्य के अनुसार घृष्णेश्वर मन्दिर का जीर्णोद्धार सर्वप्रथम 16 वीं शताब्दी में वेरुल के ही मालोजी राजे भोंसले (छत्रपति शिवाजी महाराज के दादा) के द्वारा तथा पुनः 18 वीं शताब्दी में इंदौर की महारानी पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई होलकर के द्वारा करवाया गया था| जिन्होंने वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर तथा गया के विष्णुपद मंदिर तथा अन्य कई मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया था|
ऐसा कहा जाता हैं कि एक बार भगवान घ्रिश्नेश्वर की कृपा से मालोजी राजे भोंसले को जो कि भगवान शिव के परम भक्त थे, उन्हें सांप के बिल में छुपा हुआ खजाना मिला| उन्होंने खजाने से मिले सारे पैसो का उपयोग मंदिर और शिखरशिनगंपुर के उद्धार और पुनर्निर्माण में किया|
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग कथा
दक्षिण दिशा में देवगिरि पर्वत के पास सुधर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ निवास करता था| वह बहुत ही बड़ा शिव भक्त था और प्रतिदिन शिव भगवान की विधि-विधान से पूजा किया करता था| वे दोनों ख़ुशी से अपना जीवन – यापन कर रहे थे लेकिन एक बात का दुःख था कि उनकी कोई संतान नहीं थी|
पड़ोसी उनका मजाक किया करते थे| एक बार सुदेहा दुःख से व्याकुल हो उठी और सुधर्मा से बोली कि ”इस पृथ्वी का नियम है कि वंश आगे संतान से ही चलता है, लेकिन हमारी कोई भी संतान नहीं है| अपने वंश को नष्ट होने से बचाइए| मेरे अनुसार इसका एक ही उपाय है कि आप मेरी बहन घुष्मा से विवाह कर लें|”
ऐसा सुनकर सुधर्मा ने कहा कि इस विवाह से सबसे ज्यादा दुःख तुम्हे ही होगा। लेकिन अपनी ज़िद्द से सुदेहा ने अपनी बहन का विवाह अपने पति सुधर्मा से करा दिया| अपनी बड़ी बहन सुदेहा के कहने पर घुष्मा प्रतिदिन 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर विधि – विधान से पूजा किया करती थी और उन शिवलिंगों का विसर्जन तालाब में किया करती थीं| तब शिव जी की कृपा से घुष्मा को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई|
पुत्र प्राप्ति के बाद घुष्मा का सम्मान बढ़ता गया और सुदेहा के मन में अपनी छोटी बहन घुष्मा के लिए ईर्ष्या उत्पन्न होने लगी| वह पुत्र बड़ा हुआ और उसके विवाह की बारी आ गयी| उसका विवाह बड़ी धूम-धाम के साथ सपन्न हुआ| पुत्र बहु आने से सुदेहा की ईष्या और भी बड़ गयी और इस कारण से सुदेहा ने उस सोते हुए पुत्र की चाकू से हत्या कर दी और उसके अंगों को काटकर उसी तालाब में डाल दिया जहां घुष्मा पार्थिव लिंग का विसर्जन किया करती थी|
अगली सुबह घुष्मा और सुधर्मा पूजा में लीन थे, उनकी बहु ने जब देखा कि कमरे में सब जगह रक्त है तो वह घबरा कर चिल्लाई और रोने लगी| इस बात की खबर उसने घुष्मा और सुधर्मा को बताई, मगर वो दोनों पूजा में लीन थे| तब वहां उपस्थित सुदेहा दिखावे के लिए जोर-जोर से रोने लगी। पूजा पूर्ण होने पर घुष्मा शिवलिंग का विसर्जन करने उसी तालाब के पास गयी| तब उसने देखा कि उसका पुत्र वहां खड़ा है, वह प्रसन्न हुई और भगवान की लीला को पहचान गयी|
तब वहां एक ज्योति प्रकट हुई और उस ज्योति के रूप में साक्षात शिव भगवान प्रकट हुए और उन्होंने सुदेहा का अपराध बताया| शिव भगवान सुदेहा को मृत्यु दंड देने के लिए जाने लगे तब घुष्मा ने अपनी बहन को क्षमा करने के लिए भगवान से अनुरोध किया| तब भगवान शिव जी अति प्रसन्न हुए और उन्हें वर मांगने के लिए कहा|
इस पर घुष्मा ने प्रसन्न मन से कहा कि ”हे प्रभु ! अगर आप सच में मेरी भक्ति से प्रसन्न हुए हैं तो अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए सदा के लिए यहीं विराजमान हो जाईए और उस लिंग की प्रसिद्धि मेरे नाम घुष्मेश्वर से ही सब जगह फैले|” तब वहां शिव जी घुष्मेश्वर नाम से सदा के लिए स्थापित हो गए|
यह धार्मिक स्थल 12 Jyotirlinga – भगवान शिव के 12 पवित्र स्थान वास्तव में ऐसे पवित्र तीर्थ स्थान है, जहां भक्तगण अपने संकटों को दूर करने के लिए आते हैं|
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